रचना बिष्ट रावत ने परमवीर चक्र से सम्मानित जांबाज फौजियों की कहानियों को एक किताब की शक्ल दी है. किताब का नाम है 'शूरवीर'. पेश है इस किताब का एक अंश.
खूबसूरत, मुस्कुराहट से भरी 40 वर्षीय डिंपल चंडीगढ़ के पंजाब स्टेट एजुकेशन बोर्ड स्कूल में काम करती हैं. वे कक्षा छह से 10वीं तक के बच्चों को सामाजिक ज्ञान और अंग्रेजी पढ़ाती हैं. दोपहर साढ़े-तीन बजे तक वे बच्चों के साथ व्यस्त रहती हैं. क्लास लेना, टेस्ट पेपर देखना और अगले दिन के पाठ की तैयारी करना. इस दौरान उनके पास फोन उठाने तक की फुर्सत नहीं होती. लेकिन घर वापस लौटने के बाद चाय पीते हुए, उन्होंने यह स्वीकार किया, पिछले 14 सालों में एक भी दिन ऐसा नहीं बीता है जब उन्होंने विक्रम को याद ना किया हो.
वे कहती हैं, चंडीगढ़ विक्रम की यादों से भरा पड़ा है. ‘जब मैं बस स्टॉप के पास से गुजरती हूं तो मुझे याद आता है कि मैं कैसे उन्हें यहां छोड़ा करती थी और वे कैसे जहां भी उन्हें जाना होता था बस पकड़ कर चले जाया करते थे. जब मैं यूनिवर्सिटी में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे मैंने उन्हें पहली बार नोटिस किया था, जब वे मेरे और एक लड़के के बीच आकर बैठ गए थे जो अस्वाभाविक रूप से मेरे करीब बैठने की कोशिश कर रहा था और उन्होंने धीरे से मुझे वहां से दूर हो जाने को कहा था. जब मैं नादा साहब गुरुद्वारे में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे एक बार उन्होंने मेरे साथ परिक्रमा की थी और कहा था कि ‘मुबारक हो, श्रीमती बत्रा हमने अपना चैथा फेरा पूरा कर लिया है और सिख धर्म के मुताबिक अब हम दोनों पति-पत्नी हैं. ’ जब मैं पिंजोर गार्डन्स में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे कश्मीर जाने से पहले उन्होंने अपनी जेब से एक ब्लेड निकाला था और उससे अपना अंगूठा काट कर खून से मेरी मांग भरी थी. मेरा डर दूर करने के लिए कि वे मुझसे ही शादी करेंगे कि नहीं.... ’
डिंपल और विक्रम कॉलेज के दिनों से एक-दूसरे से प्यार करते थे. पंजाब यूनिवर्सिटी में उन्होंने अभी एक-दूसरे के साथ कुछ ही महीने बिताए थे कि विक्रम इंडियन मिलिटरी अकादमी ज्वाइन करने के लिए चले गए. लेकिन उन्होंने आपस में संपर्क बनाए रखा और शादी करने का फैसला कर लिया था. विक्रम अगर कारगिल युद्ध से वापस लौट पाते तो यही उनका प्लान था. वे नहीं लौटे. डिंपल को एक दोस्त का फोन आया कि युद्ध में विक्रम बुरी तरह घायल हो गए हैं और उन्हें उनके माता-पिता को फोन करना चाहिए. जब वे पालमपुर पहुंचीं तो उनका पार्थिव शरीर लिए उनका ताबूत वहां पहुंच चुका था. मीडिया और स्थानीय लोगों की भीड़ जमा थी. उनके अंतिम संस्कार के लिए 25,000 से ज्यादा लोग वह एकत्रित हो गए थे. सिर्फ पालमपुर से नहीं बल्कि आसपास के शहरों जैसे बैजनाथ, पपरोला और नगरोता से भी लोग आए थे.
‘मैं नजदीक नहीं गई. वहां बहुत से मीडिया के लोग थे और मैं वहां रो कर तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी.’ वे अपने भाई का हाथ पकडे़ दूर से ही उनका अंतिम संस्कार होते देखती रहीं. विक्रम के माता-पिता ने भीड़ में सलवार-कमीज पहने उस लड़की को देख लिया था लेकिन वे खुद इतने दुखी थे कि उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि वह कौन है. वे वापस चंडीगढ़ लौट आई और यह फैसला किया कि किसी और से शादी करने की बजाए वे विक्रम की यादों के सहारे ही अपना जीवन बिता देंगी.
‘वे कमाल के मौज मस्ती करने वाले शख़्स थे. वे बहुत सुंदर भी थे. उन्हें लोगों के काम आना अच्छा लगता था. लेकिन जो बात मुझे उन्हें भूलने नहीं देती वह यह है कि वे मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे जिनके साथ मैं अपनी अंतरंग भावनाएं बांट सकती थी और यह उम्मीद कर सकती थी कि वे मुझे समझेंगे,’ उन्होंने कहा, कभी-कभी जब वे घड़ी की तरफ देखती हैं और उसमें शाम के साढ़े-सात बज रहे होते हैं और दिन बुधवार या रविवार होता है तो आज भी उनके दिल की धड़कन रुक जाती है. युद्ध पर जाने से पहले चार साल तक वे चाहे कहीं भी हों सप्ताह में दो बार इसी समय फोन किया करते थे.
‘वे पालमपुर, देहरादून, सोपोर या दिल्ली कहीं भी हो सकते थे लेकिन उनका फोन बिना नागा इसी समय आया करता था, और मैं भी उस वक्त फोन के करीब ही मंडराती रहती थी ताकि मेरे पिता द्वारा फोन उठाने से पहले मैं उठा लूं,’ उन्होंने उदास मुस्कान के साथ बताया. अब फोन उनके लिए उनके वक्त पर नहीं बजता और जब बजता भी है तो उससे विक्रम की जानी पहचानी आवाज नहीं आती. वे फोन जरूर करते लेकिन अब वे जहां गए हैं वहां फोन नहीं होते.
खूबसूरत, मुस्कुराहट से भरी 40 वर्षीय डिंपल चंडीगढ़ के पंजाब स्टेट एजुकेशन बोर्ड स्कूल में काम करती हैं. वे कक्षा छह से 10वीं तक के बच्चों को सामाजिक ज्ञान और अंग्रेजी पढ़ाती हैं. दोपहर साढ़े-तीन बजे तक वे बच्चों के साथ व्यस्त रहती हैं. क्लास लेना, टेस्ट पेपर देखना और अगले दिन के पाठ की तैयारी करना. इस दौरान उनके पास फोन उठाने तक की फुर्सत नहीं होती. लेकिन घर वापस लौटने के बाद चाय पीते हुए, उन्होंने यह स्वीकार किया, पिछले 14 सालों में एक भी दिन ऐसा नहीं बीता है जब उन्होंने विक्रम को याद ना किया हो.
वे कहती हैं, चंडीगढ़ विक्रम की यादों से भरा पड़ा है. ‘जब मैं बस स्टॉप के पास से गुजरती हूं तो मुझे याद आता है कि मैं कैसे उन्हें यहां छोड़ा करती थी और वे कैसे जहां भी उन्हें जाना होता था बस पकड़ कर चले जाया करते थे. जब मैं यूनिवर्सिटी में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे मैंने उन्हें पहली बार नोटिस किया था, जब वे मेरे और एक लड़के के बीच आकर बैठ गए थे जो अस्वाभाविक रूप से मेरे करीब बैठने की कोशिश कर रहा था और उन्होंने धीरे से मुझे वहां से दूर हो जाने को कहा था. जब मैं नादा साहब गुरुद्वारे में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे एक बार उन्होंने मेरे साथ परिक्रमा की थी और कहा था कि ‘मुबारक हो, श्रीमती बत्रा हमने अपना चैथा फेरा पूरा कर लिया है और सिख धर्म के मुताबिक अब हम दोनों पति-पत्नी हैं. ’ जब मैं पिंजोर गार्डन्स में होती हूं तो मुझे याद आता है कि कैसे कश्मीर जाने से पहले उन्होंने अपनी जेब से एक ब्लेड निकाला था और उससे अपना अंगूठा काट कर खून से मेरी मांग भरी थी. मेरा डर दूर करने के लिए कि वे मुझसे ही शादी करेंगे कि नहीं.... ’
डिंपल और विक्रम कॉलेज के दिनों से एक-दूसरे से प्यार करते थे. पंजाब यूनिवर्सिटी में उन्होंने अभी एक-दूसरे के साथ कुछ ही महीने बिताए थे कि विक्रम इंडियन मिलिटरी अकादमी ज्वाइन करने के लिए चले गए. लेकिन उन्होंने आपस में संपर्क बनाए रखा और शादी करने का फैसला कर लिया था. विक्रम अगर कारगिल युद्ध से वापस लौट पाते तो यही उनका प्लान था. वे नहीं लौटे. डिंपल को एक दोस्त का फोन आया कि युद्ध में विक्रम बुरी तरह घायल हो गए हैं और उन्हें उनके माता-पिता को फोन करना चाहिए. जब वे पालमपुर पहुंचीं तो उनका पार्थिव शरीर लिए उनका ताबूत वहां पहुंच चुका था. मीडिया और स्थानीय लोगों की भीड़ जमा थी. उनके अंतिम संस्कार के लिए 25,000 से ज्यादा लोग वह एकत्रित हो गए थे. सिर्फ पालमपुर से नहीं बल्कि आसपास के शहरों जैसे बैजनाथ, पपरोला और नगरोता से भी लोग आए थे.
‘मैं नजदीक नहीं गई. वहां बहुत से मीडिया के लोग थे और मैं वहां रो कर तमाशा खड़ा नहीं करना चाहती थी.’ वे अपने भाई का हाथ पकडे़ दूर से ही उनका अंतिम संस्कार होते देखती रहीं. विक्रम के माता-पिता ने भीड़ में सलवार-कमीज पहने उस लड़की को देख लिया था लेकिन वे खुद इतने दुखी थे कि उन्होंने यह पता लगाने की कोशिश नहीं की कि वह कौन है. वे वापस चंडीगढ़ लौट आई और यह फैसला किया कि किसी और से शादी करने की बजाए वे विक्रम की यादों के सहारे ही अपना जीवन बिता देंगी.
‘वे कमाल के मौज मस्ती करने वाले शख़्स थे. वे बहुत सुंदर भी थे. उन्हें लोगों के काम आना अच्छा लगता था. लेकिन जो बात मुझे उन्हें भूलने नहीं देती वह यह है कि वे मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे जिनके साथ मैं अपनी अंतरंग भावनाएं बांट सकती थी और यह उम्मीद कर सकती थी कि वे मुझे समझेंगे,’ उन्होंने कहा, कभी-कभी जब वे घड़ी की तरफ देखती हैं और उसमें शाम के साढ़े-सात बज रहे होते हैं और दिन बुधवार या रविवार होता है तो आज भी उनके दिल की धड़कन रुक जाती है. युद्ध पर जाने से पहले चार साल तक वे चाहे कहीं भी हों सप्ताह में दो बार इसी समय फोन किया करते थे.
‘वे पालमपुर, देहरादून, सोपोर या दिल्ली कहीं भी हो सकते थे लेकिन उनका फोन बिना नागा इसी समय आया करता था, और मैं भी उस वक्त फोन के करीब ही मंडराती रहती थी ताकि मेरे पिता द्वारा फोन उठाने से पहले मैं उठा लूं,’ उन्होंने उदास मुस्कान के साथ बताया. अब फोन उनके लिए उनके वक्त पर नहीं बजता और जब बजता भी है तो उससे विक्रम की जानी पहचानी आवाज नहीं आती. वे फोन जरूर करते लेकिन अब वे जहां गए हैं वहां फोन नहीं होते.
Nice story
ReplyDelete